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व्यावहारिक समाजशास्त्र की प्रकृति

व्यावहारिक समाजशास्त्र की प्रकृति ( 1 ) व्यावहारिक समाजशास्त्र केवल सिद्धान्तों का ही निर्माण नहीं करता है बल्कि उनके दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन में प्रयोग में भी रुचि लेता है ।  ( 2 ) व्यावहारिक समाजशास्त्र और सैद्धान्तिक समाजशास्त्र पूर्णतः एक - दूसरे से अलग नहीं है बल्कि ये एक - दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं ।  ( 3 ) व्यावहारिक समाजशास्त्र सामाजिक समस्याओं एवं सामाजिक व्याधिकीयों को सामाजिक संगठन के अन्तर्गत ही समझने एवं उन्हें दूर करने में रुचि रखता है । सामाजिक संगठन को समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसके व्याधिकीय पक्ष को भी समझा जाये ।  ( 4 ) व्यावहारिक समाजशास्त्र सामाजिक समस्याओं के वैज्ञानिक हल में रुचि लेता है । यह एक आदर्शात्मक विज्ञान नहीं है लेकिन फिर भी इसका आचार एवं नीतिशास्त्र के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस अर्थ में व्यावहारिक समाजशास्त्र यह जानकारी प्रदान करता है कि किसी समस्या का उचित हल क्या हो सकता है ? कौनसी विधियाँ उपयुक्त रहेंगी और कौनसे सुधार करने की आवश्यकता है ?  ( 5 ) व्यावहारिक समाजशास्त्र केवल सामाजिक समस्याओं के समाधान एवं अध्ययन तक ही सीमित ...

कर्म का अर्थ एवं परिभाषा

कर्म की धारणा भारतीय हिन्दू समाज में इतनी गहराई से व्याप्त है कि मूढ़ से मूढ व्यक्ति भी यह जानता है कि वह जैसे कर्म करेगा , वैसा उसे फल अवश्य मिलेगा । सभी व्यक्तियों की यह दृढ़ भावना रही है कि पूर्व जन्म में उन्होंने जैसे कर्म किये हैं , उनका फल उन्हें इस जीवन में मिल रहा है और इस जीवन में किये गये कर्मों का फल निश्चित रूप से दूसरे जन्म में भोगना पड़ेगा । यही वह विश्वास है जिसके कारण आदर्श हिन्दू समाज व्यवस्था प्राचीन काल से आज तक बनी रही है ।  कर्म का अर्थ   कर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ' कर्मन् ' शब्द से हुई है जिसका अर्थ क्रिया , कृत्य कर्त्तव्य अथवा दैव ( भाग्य ) है । अतः स्पष्ट है कि कर्म का तात्पर्य किसी भी ऐसी क्रिया से जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के दायित्व से है अथवा जो व्यक्ति के भाग्य का निर्माण करती है । वस्तुत : कर्म का तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से होता है , जिनका सम्बन्ध शरीर ( कायिक ) , वाणी ( वाचा तथा मन ( मनसा ) से होता है । इस प्रकार बाह्य रूप से व्यक्ति जो क्रिया करता है केवल वही कर्म नहीं है , दूसरों से जो कुछ भी कहता है अथवा मन में जैसा विचार करता है उसे कर्म...