कर्म की धारणा भारतीय हिन्दू समाज में इतनी गहराई से व्याप्त है कि मूढ़ से मूढ व्यक्ति भी यह जानता है कि वह जैसे कर्म करेगा , वैसा उसे फल अवश्य मिलेगा । सभी व्यक्तियों की यह दृढ़ भावना रही है कि पूर्व जन्म में उन्होंने जैसे कर्म किये हैं , उनका फल उन्हें इस जीवन में मिल रहा है और इस जीवन में किये गये कर्मों का फल निश्चित रूप से दूसरे जन्म में भोगना पड़ेगा । यही वह विश्वास है जिसके कारण आदर्श हिन्दू समाज व्यवस्था प्राचीन काल से आज तक बनी रही है ।
कर्म का अर्थ
कर्म शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ' कर्मन् ' शब्द से हुई है जिसका अर्थ क्रिया , कृत्य कर्त्तव्य अथवा दैव ( भाग्य ) है । अतः स्पष्ट है कि कर्म का तात्पर्य किसी भी ऐसी क्रिया से जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के दायित्व से है अथवा जो व्यक्ति के भाग्य का निर्माण करती है । वस्तुत : कर्म का तात्पर्य उन सभी क्रियाओं से होता है , जिनका सम्बन्ध शरीर ( कायिक ) , वाणी ( वाचा तथा मन ( मनसा ) से होता है । इस प्रकार बाह्य रूप से व्यक्ति जो क्रिया करता है केवल वही कर्म नहीं है , दूसरों से जो कुछ भी कहता है अथवा मन में जैसा विचार करता है उसे कर्म के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है बल्कि व्यक्ति को अपने कर्मों का फल किस प्रकार प्राप्त होता है , इसे वैज्ञानिक आधार पर समझाते हुये बैजनाथ जी ने लिखा है- “ कार्य और कारण का नियम हर जगह व्याप्त होता है । प्रत्येक कारणं का कोई न कोई परिणाम अवश्य होगा । विज्ञान का नियम है कि क्रिया और उसकी प्रतिक्रिया समान बल की , किन्तु विपरीत दिशा की होती है । हमारे प्रत्येक कार्य में स्थूल कार्य के अतिरिक्त भाव तथा विचार की भी क्रिया होती है । सर्वप्रथम हम किसी कार्य के सम्बन्ध में सोचते हैं और इसके पश्चात् ही यह विचार एक क्रिया उत्पन्न करता है । उस विचार के आते ही हमारे मन में क्रोध , लोभ , स्नेह आदि भाव उत्पन्न होते हैं और बाहर निकलकर दूसरों पर वैसा ही प्रभाव डालते हैं । " इस कथन से स्पष्ट होता है कि कर्म एक क्रिया है और उसका फल एक प्रति क्रिया है । अतः मनुष्य जैसा कर्म करता है , वैसा ही उसको फल इस जन्म या पुनर्जन्म में प्राप्त होता है ।
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