धर्म की विशेषतायें ( Characteristics of Religion )
( 1 ) अलौकिक शक्ति में विश्वास - धर्म की सबसे प्रमुख विशेषता यह होती है कि धर्म में यह विश्वास किया जाता है कि विश्व में कोई न कोई दिव्य एवं अलौकिक शक्ति है जो मानव से श्रेष्ठ है । यह शक्ति ही प्रकृति , मानव जीवन एवं समस्त संसार का संचालन करती है ।
( 2 ) धार्मिक क्रियायें - समाज में मानव अपने धार्मिक विश्वास , विभिन्न धार्मिक क्रियाओं जैसे पूजा - पाठ , कर्मकाण्ड , यज्ञ , हवन एवं बलि आदि के द्वारा अभिव्यक्त करता है । यही कारण है कि प्रत्येक धर्म में इस अदृश्य शक्ति से सम्बन्धित कुछ बाह्य क्रियायें पाई जाती हैं । ये क्रियायें इस प्रकार की होती हैं जिनमें से कुछ सामान्य व्यक्ति द्वारा सम्पादित कर ली जाती हैं जबकि कुछ विशिष्ट व्यक्तियों जैसे पण्डे , पुजारी आदि द्वारा ही सम्पादित होती हैं
( 3 ) पवित्रता की धारणा - धर्म और धर्म से सम्बन्धित सभी वस्तुओं , क्रियाओं , पुस्तकों , प्रतीकों आदि को पवित्र माना जाता है । धर्म पवित्रता एवं अपवित्रता में भेद करता है यह दुर्थीम का मानना है । जो चीजें धर्म से सम्बन्धित होती हैं , वे सदैन पवित्र मानी जाती हैं । यही कारण है कि हम कुछ वस्तुओं को बहुत अधिक पवित्र मानते हैं ।
( 4 ) मानसिक एवं भावनात्मक पक्ष - धर्म हमारी भावनाओं एवं संवेगों से सम्बन्ध रखता है । अलौकिक शक्ति में विश्वास , भय , श्रद्धा , आदर - प्रेम एवं भक्ति - भावनाओं एवं संवेगों से सम्बद्ध रहते हैं । हमें अलौकिक शक्ति से डर लगता इसी कारण से हम , उससे प्रेम करते हैं ।
( 5 ) प्रार्थना , पूजा एवं आराधना - प्रत्येक धर्म में अलौकिक शक्ति के कोप से बचने एवं उसको प्रसन्न करने के लिये , प्रार्थना , पूजा एवं आराधना की जाती है । सभी धर्मों में इनका समावेश पाया जाता है । फर्क केवल इतना है कि इनमें इनके सम्पादन की क्रियाएँ भिन्न - भिन्न प्रकार की होती हैं ।
( 6 ) तर्क का अभाव - धर्म में प्रायः तर्क - वितर्क एवं वैज्ञानिक तथ्यों का अभाव पाया जाता है । यह हमारी भावनाओं एवं विश्वासों पर आधारित रहता है । यद्यपि आजकल इस सन्दर्भ में बहुत परिवर्तन आये हैं व विचार बदले हैं फिर भी हम सार रूप में यह कह सकते हैं कि विज्ञान के आधार पर धर्म को सिद्ध या असिद्ध नहीं किया जा सकता है ।
धर्म के कार्य या भूमिका ( Role or Functions of Religion )
धर्म संस्कृति का एक अंग है । यह मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों की पूर्ति करता है । यही कारण है कि हमें आदि काल से लेकर वर्तमान समय तक सभी समाजों धर्म देखने को मिलता है ।
( 1 ) धर्म लोगों को मानसिक तनावों एवं संवेगों से मुक्त करता है - धर्म का जीवन में अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होती हैं जो कि व्यक्ति में क्रोध , घृणा सबसे बड़ा कार्य है , लोगों को मानसिक तनावों एवं संवेगों से मुक्त करना । रोजमर्रा के तनाव , संघर्ष , उपेक्षा , हीनता आदि को जन्म देती हैं । यदि ये परिस्थितियाँ एक लम्बे समय तक मानव में बनी रहें तो वह परेशान एवं विक्षिप्त हो जायेगा एवं उसका व्यवस्थित रूप से कार्य करना सम्भव नहीं हो सकेगा ।
अतः ऐसे वातावरण से मुक्ति पाने के लिए वह अपने ईष्ट से अथवा ईश्वर से प्रार्थना करता है और अलौकिक शक्ति के सम्मुख अपने को समर्पित करता है । भगवान के सामने अपना सुख - दुःख प्रकट करने के बाद वह अपने को हल्का महसूस करने लगता है ।
( 2 ) धर्म समाज में एकता की भावना को प्रबल करता है - धर्म का दूसरा प्रकार्य है - समाज में एकता की भावना को प्रबलता प्रदान करना । आज हमें एक नहीं अपितु अनेक समाज ऐसे मिलेंगे जो धर्म के नाम पर कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं । दुर्थीम का मत है कि धर्म उन सभी लोगों को एकता के सूत्र में पिरोता है जो उसमें विश्वास करते हैं । सामुदायिक एवं धार्मिक दंगों के अवसर पर तथा धार्मिक उत्सवों को मनाने के समय एक धर्म के मानने वालों में एकता का अनुभव किया जा सकता है ।
( 3 ) धर्म सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं की रक्षा करता है - धर्म का यह भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है कि वह सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं ही रक्षा करता है । इन सामाजिक मूल्यों को मानने वालों के लिए इस लोक एवं परलोक में सुविधाओं का विश्वास दिलाया जाता है तथा इन मूल्यों एवं मान्यताओं की अवहेलना करने वालों को धर्म दण्ड का भय बताता है । पाप - पुण्य , स्वर्ग - नरक की कल्पना द्वारा लोगों को डर दिखाकर सामाजिक नियमों को मानने के लिए प्रोत्साहन , प्रेरणा एवं बाध्यता पैदा करता है ।
( 4 ) धर्म समाज में नैतिकता को बनाये रखने में सहायक है - हमारे समाज में जो नैतिकता व्याप्त है वह धर्म के कारण ही है । कभी - कभी तो धार्मिक एवं नैतिक नियम एक ही होते हैं । धार्मिक नियमों में नैतिकता का पुट होता है ।
धर्म का समाज में महत्त्व ( Importance of religion in society )
धर्म का समाज के जीवन पर प्रभाव होता ही है । यह प्रभाव आदिकालीन समाज में अत्यन्त प्रबल है । आदिकालीन मानव के जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं होता जो कि किसी न किसी रूप में धर्म से प्रभावित न हो ।
( 1 ) धर्म लोगों के व्यवहारों को नियन्त्रित करता है - धर्म में जिस अलौकिक शक्ति पर विश्वास किया जाता है , उस शक्ति से लाभ उठाने के लिए और उसके कोप से बचने के लिए लोग धर्म से सम्बन्धित नियमों का सच्चाई से पालन करते हैं । उनका विश्वास होता है कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो उन्हें वह शक्ति ( ईश्वर ) दण्ड देगी । यह भय उसके व्यवहारों एवं कार्यों को नियन्त्रित करता है । इस प्रकार धर्म में पाप और पुण्य का विचार भी लोगों के व्यवहार को नियन्त्रित करता है ।
( 2 ) धार्मिक विश्वास , आचरण को संचालित व निर्देशित भी करते हैं - धार्मिक कर्तव्यों का विधान प्रत्येक धर्म में होता है और वे कर्त्तव्य लोगों के आचरण का संचारण करते हैं । मनुष्य इस जीवन की ही नहीं , पारलौकिक जीवन की भी चिन्ता करता है । इस चिन्ता का हल धर्म निकालता है । पूजा - पाठ करके , प्रार्थना करके , सदाचारपूर्ण जीवन व्यतीत करके , दान करके और दीन - दुखियों की सेवा आदि करके व्यक्ति यह आशा करता है कि इस जन्म के इन पुण्य कार्यों के आधार पर उसका अगला जन्म सुखी होगा
( 3 ) धर्म लोगों में सद्गुणों का विकास करता है - समाज के असंख्य व्यक्तियों का व्यक्तित्व व चरित्र धार्मिक विश्वासों के कारण ही रूपान्तरित हो जाता है । धार्मिक आदर्श धीरे - धीरे जीवन पर प्रभाव डालते और बहुधा उनके जीवन की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रेरणा बन जाते हैं । वास्तविकता यह है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से धर्म स्वयं मानव जीवन के सद्गुणों , आचारों , उच्च आदर्शों तथा मूल्यों व पाप - पुण्य से सम्बन्धित विश्वासों का संकलन है ।
( 4 ) मानव - जीवन की अनेक समस्याओं का सामना सफलतापूर्वक करने की शक्ति प्रदान करता है - धर्म पर विश्वास करने वाले लोग संसार में अपने को अकेला नहीं पाते । उन्हें यह विश्वास होता है कि एक सर्वशक्तिमान सत्ता सदैव उनके साथ है और हर परिस्थिति में वह उनकी सहायता करेगी । धार्मिक कथाओं पर विश्वास करने वाले लोग कठिन परिस्थिति में भी भगवान की शक्ति से अपने को शक्तिमान समझते हुए परिस्थितियों का सामना साहस और दृढ़ता से करते हैं
( 5 ) धर्म , व्यवहार या आचरण में पवित्रता की भावना लाता है - आदिकालीन मानव भगवान से बहुत डरता है । इसीलिए वह अपने को अपवित्र कार्यों से दूर रखता है और यह विश्वास करता है कि पवित्र जीवन से दूर हो जाना धार्मिक भ्रष्टाचार है और उसे इसकी क्षमा भगवान से कभी नहीं मिलती । वहाँ लोग धार्मिक शुद्धि पर बहुत विश्वास करते हैं और धार्मिक उत्सवों तथा कृत्यों में बड़े ही सच्चे दिल से भाग लेते हैं ।
( 6 ) धर्म आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करता है- धर्म का समाज के आर्थिक जीवन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । यह बात भारत के जन - जातीय जीवन के सम्बन्ध में और भी अधिक सच है । भारत के लोग प्रत्येक आर्थिक क्रिया का आरम्भ धार्मिक कृत्यों से ही करते हैं । खेत - पूजा , हल - बैल की पूजा , बही - खाता पूजा , खलिहान की पूजा आदि इसी बात की अभिव्यक्ति हैं कि धर्म आर्थिक जीवन को भी नियन्त्रित व प्रभावित करता है
( 7 ) धर्म सामाजिक जीवन का आधार है - सामाजिक जीवन भी धर्म पर आधारित होता है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण है सामाजिक जीवन के संस्कार । जीवन के आरम्भ अर्थात् जन्म से मृत्यु तक सामाजिक जीवन को पूर्ण करने के लिए अनेक संस्कारों का विधान है और ये सभी संस्कार आधारभूत रूप से धर्म पर ही आधारित हैं । होम , पूजन , पाठ आदि अधिकांश संस्कारों के आवश्यक अंग हैं और लोग बड़े ही निष्ठापूर्वक इन सब धार्मिक कृत्यों को करते हैं और संस्कारों को मानते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि सम्पूर्ण मानव - जीवन में धर्म का महत्त्व वास्तव में अत्यधिक है ।
धर्म के तत्त्व ( Elements of Religion )
( 1 ) अनुष्ठान ( Rituals ) - धार्मिक अनुष्ठानों का तात्पर्य ऐसी स्वीकृत क्रियाओं से है जो स्वयं पवित्र होती हैं तथा साथ ही किसी पवित्र वस्तु को प्रतीकात्मक रूप से स्पष्ट करती हैं । " सभी धर्मों में अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित विश्वासों को प्रकट करने के लिए अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड पाये जाते हैं । समाज में यह धारणा व्याप्त है कि अनुष्ठान द्वारा किसी भी सामाजिक रीति को पवित्र बनाया जा सकता है एवं जो कुछ भी पवित्र होता है , उसे अनुष्ठान का रूप दिया जा सकता है ।
( 2 ) अनुभूतियाँ ( Feelings ) - अनुष्ठान उचित भावनाओं को जागृत करने वाला माना जाता है । धार्मिक भावनाओं से धर्म के साधनों एवं प्रविधियों को समर्थन मिलता है । कभी - कभी धर्म से आतंक एवं रोमांच भी उत्पन्न होता है ।
( 3 ) विश्वास ( Beliefs ) - धर्म का प्रमुख आधार विश्वास ही है अन्यथा धर्म को समाज में कोई स्थान नहीं मिलता । सभी धर्मों अलौकिक शक्ति में विश्वास व्यक्त किया जाता है । हमारा यह विश्वास है कि अलौकिक शक्ति ही हमें दुःख - सुख , सफलता - विफलता प्रदान करती है । पवित्रता के निर्माण एवं अनेक समस्याओं को सुलझाने में विश्वासों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है ।
( 4 ) संगठन ( Organisation ) - धर्म में एक संगठन पाया जाता है जो कि धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न कराने तथा अनुयायियों से धर्म का पालन कराने के लिए होता है । यह संगठन धार्मिक विश्वास एवं परम्पराओं को बनाये रखने ; धार्मिक अनुष्ठानों एवं सिद्धान्तों में विशेषज्ञों की भर्ती करने आदि का कार्य करता है , आदि ।
( 5 ) प्रतीक एवं पौराणिक गाथायें ( Symbols and Myths ) - कुछ प्रतीक होते हैं जो कि धार्मिक भावनाओं एवं अनुष्ठानों को सरल रूप में व्यक्त करने में प्रयुक्त एवं कथाएँ भी प्रचलित होती हैं , जिनमें ईश्वरीय चमत्कारों एवं धार्मिक पुरुषों का गुणगान किया जाता है ।
( 6 ) निषेध ( Taboos ) - प्रत्येक धर्म में कुछ निषेध बताये गये हैं जिनका आचरण करने पर मनुष्य को समाज द्वारा दण्डित किया जा सकता है क्योंकि इन निषेधों का उद्देश्य धार्मिक पवित्रता बनाए रखना है । जैसे व्यक्ति को झूठ नहीं बोलना चाहिए , चोरी नहीं करनी चाहिए , हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
( 7 ) धार्मिक संस्तरण ( Religion Hierarchy ) - प्रत्येक धर्म अपनी एक अलग संस्तरण व्यवस्था रखता है जिसमें धार्मिक विशेषज्ञों , पण्डे , पुजारियों , शासन , पादरियों एवं मौलवियों का स्थान अन्य सामान्य अनुयायियों की अपेक्षा ऊँचा होता है और इन्हें कुछ विशेष अधिकार एवं संरक्षण प्राप्त होता है ।
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