सामाजिक भूमिका क्या हैं ?
सामान्यत : Role (भूमिका) का आशय किसी व्यक्ति के द्वारा अन्य व्यक्ति के कार्यों की नकल करने से लिया जाता है । इस प्रकार हम चित्रपट देखकर कह सकते हैं कि अमुक अभिनेता ने नायक का तथा अमुक अभिनेता ने खलनायक का रोल किया । इस प्रकार साधारण अर्थों में अनेक व्यक्ति भूमिका का प्रयोग दूसरे का कार्य ग्रहण करने से लेते हैं । समाजशास्त्र में भूमिका की अवधारणा इतनी सीधी व सरल नहीं है बल्कि बहुत जटिल है । समाजशास्त्री भूमिका को प्रस्थिति का प्रकार्य (प्रमुख कार्य) मानते हैं अर्थात् भूमिका किसी भी प्रस्थिति का व्यावहारिक पहलू है ।
भूमिका का निर्माण करने वाले तत्त्व प्रमुख रूप से दो प्रकार के होते हैं ( अ ) व्यक्तियों की आशायें एवं ( ब ) इन आशाओं के अनुरूप की जाने वाली बाहरी क्रियाएँ । प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों से कार्यों को करने की आशा करता है , यदि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की इन आशाओं के अनुरूप बाहरी क्रियाओ को पूरा करता है तो समाजशास्त्र में इन क्रियाओं को ' भूमिका ' की संज्ञा दी जाती है ।
भूमिका की परिभाषा
डेविस के अनुसार- “ भूमिका वह ढंग है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी स्थिति सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है । ” इसका तात्पर्य है कि किसी भी मनुष्य को किसी निश्चित प्रस्थिति (स्थिति) में कुछ न कुछ विशिष्ट भूमिका निभानी पड़ती है , जिसकी कि लोग उससे अपेक्षा करते हैं ।
सार्जेन्ट के अनुसार- व्यक्ति की भूमिका ( Role ) सामाजिक व्यवहार का ही एक प्रतिमान अथवा प्रारूप है , जिसे वह अपने समूह के सदस्यों की प्रत्याशाओं के अनुसार एक विशेष प्रस्थिति में ठीक समझता है । "
इलियट एवं मेरिल के अनुसार “ भूमिका वह कार्य है जिसे व्यक्ति प्रत्येक प्रस्थिति के फलस्वरूप निभाता है ।
फिचर का मत है कि प्रत्येक समाज में व्यवहार के कुछ तरीकों को अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है । व्यवहार के ये तरीके संख्या में इतने अधिक होते हैं कि एक अकेले व्यक्ति से ही इनको पूरी तरह समझ लेने की आशा नहीं की जा सकती । ऐसी दशा में प्रत्येक सामाजिक प्रस्थिति के कुछ विशेष व्यवहार सम्बन्धित कर दिये जाते हैं और व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह जिस स्थिति में है उसी से सम्बन्धित व्यवहारों को पूरा करेगा । संक्षेप में एक व्यक्ति के इन्हीं व्यवहार के तरीकों की सम्पूर्णता को भूमिका कहा जाता है । इस प्रकार फिचर का कथन है , “ जब एक दूसरे से सम्बद्ध व्यवहार के बहुत से प्रतिमान किसी विशेष सामाजिक कार्य को पूरा करते हैं , तब व्यवहार के इसी संयोग को हम भूमिका कहते हैं ।
भूमिका के प्रकार
सामान्यतः भूमिका दो प्रकार की होती है
( 1 ) प्रदत्त भूमिकायें ( Ascribed Roles )- प्रदत्त प्रस्थितियों से सम्बन्धित कार्यों को प्रदत्त भूमिकाएँ कहा जाता है ।
( 2 ) अर्जित भूमिकायें ( Achieved Roles )- अर्जित प्रस्थितियों से सम्बन्धित कार्यों को अर्जित भूमिकाएँ कहा जाता है
भूमिका की विशेषता
1. भूमिका उन व्यवहारों का योग है जिनको एक प्रस्थिति (स्थिति) पर होने के कारण निभाने की आशा की जाती है ।
2. भूमिका का निर्धारण समाज द्वारा होता है । प्रत्येक व्यक्ति स आशा की जाती है कि वह सामाजिक आचरणों के अनुकूल कार्य करे और समाज में व्यवस्था बनाये रखे ।
3. हम प्रत्येक व्यक्ति से एक विशेष भूमिका की आशा दो कारणों से करते हैं - प्रथम तो व्यक्ति सामाजिक मूल्यों के अनुकूल आचरण करे और दूसरे समाज में व्यवस्था बनी रहे ।
4. भूमिका भी प्रदत्त और अर्जित दोनों होती हैं । एक प्रस्थिति पर आसीन सभी की प्रदत्त भूमिका समान होती है परन्तु अर्जित भूमिका में अन्तर होता है । जैसे सभी अध्यापक पढ़ायेंगे पर कुछ अध्यापक अतिरिक्त कार्य भी कर सकते हैं ।
5. भूमिका समयानुकूल परिवर्तनशील है । समाज और संस्कृति के साथ व्यक्ति ज्यों - ज्यों अधिकाधिक अनुकूलन करता जा रहा है उसकी भूमिका में परिपक्वता आती जाती है
6. प्रत्येक भूमिका व्यक्ति से एक विशेष प्रकार के व्यवहार की माँग करती है इसलिए एक ही व्यक्ति अनेक व्यक्तियों से अनेक तरह का व्यवहार करता है
7. कुछ भूमिकाएँ साधारण होती हैं और कुछ प्रमुख । जिनमें अधिक दायित्व और श्रम निहित होता है और व्यक्ति को उसकी प्रमुख भूमिका से ही जाना जाता है ।
8. हालाँकि हम सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप भूमिका अदा करने का प्रयत्न करते हैं , लेकिन व्यवहारिक रूप में सभी भूमिकाओं को समुचित रूप में निभाना कठिन है । अतः जिस भूमिका में हमारी रुचि अधिक होती है उसका निर्वाह हम अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं । इस प्रकार व्यक्ति की भूमिका का उसकी रुचियों , मनोवृत्तियों और योग्यता से विशेष सम्बन्ध है ।
प्रस्थिति और भूमिका में सम्बन्ध
प्रस्थिति एवं भूमिका दोनों अवधारणायें एक - दूसरे की पूरक हैं । जहाँ प्रस्थिति होगी वहाँ भूमिका का होना आवश्यक है और भूमिका के बिना प्रस्थिति सम्भव नहीं है । टॉलकट पारसन्स ने अपनी पुस्तक ' ए जनरल थ्योरी ऑफ एक्शन ' में प्रस्थिति एवं भूमिका के सम्बन्ध को दर्शाते हुए कहा है कि “ व्यक्ति स्वयं सामाजिक व्यवस्था की एक इकाई है और इस अर्थ में वह प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं का मिश्रित बण्डल है ।
रॉल्फ लिण्टन का कहना है कि प्रस्थिति और भूमिका कोई अलग चीज नहीं है , अपितु “ भूमिका प्रस्थिति का गत्यात्मक पहलू है । ” इसका तात्पर्य यह है कि जब प्रस्थिति में गति आती है तो वह व्यक्ति की भूमिका बन जाती है । प्रस्थिति - एवं भूमिका के सम्बन्ध को जब हम और आगे लेकर चलते हैं तो इस विषय में हम कह सकते हैं कि भूमिका बीज के रूप में है और प्रस्थिति पौधे के रूप में । उदाहरण के लिए हमें यह देखना होगा कि बीज के पैकेट में से जैसे बीज लेंगे उसी प्रकार का हमारा पौधा तैयार होगा । इसी तरह जैसी भूमिका हम निभायेंगे , वैसा ही हमारी प्रस्थिति का विकास होगा । इस तरह इन विचारकों के मत में भूमिका , प्रस्थिति का निर्धारण करती है और प्रस्थिति , भूमिका का ।
इस प्रकार भूमिकायें एवं प्रस्थिति परस्पर सम्बन्धित हैं , तथापि कभी - कभी एक के अभाव में दूसरे को प्राप्त किया जा सकता है । उदाहरण के लिए यदि एक प्रिन्सीपल का अचानक देहान्त हो जाये तो उसकी अनुपस्थिति में वाइस प्रिंसीपल उसकी प्रस्थिति का पद ग्रहण कर लेता है और विधिवत् प्रक्रिया द्वारा नये प्रिन्सीपल के चयन तक वह प्रिन्सीपल बना रहता है । अतः कुछ समय के लिए वह भूमिका - विहीन प्रस्थिति में रहता है
इसी प्रकार कई बार प्रस्थिति के अभाव में भी भूमिका का निष्पादन सम्भव हो जाता है , जैसे – परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर घर की महिलायें नर्स की भूमिका का निर्वाह करती हैं । परन्तु यह विशेष दशाओं में ही सम्भव है अन्यथा सामान्यतः प्रस्थिति एवं भूमिका दोनों एक - दूसरे से अविभाज्य रूप से सम्बन्धित होती हैं ।
जानकारी अच्छी लगे तो इससे आगे भी शेयर करे और आपको ये पोस्ट केसी लगी कमेंट बॉक्स में जरूर लिखें।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें