समाजीकरण की प्रक्रिया के स्तर
( 1 ) मौखिंक अवस्था — बच्चे के जीवन की यह पहली अवस्था है । इस समय बच्चे की सभी आवश्यकताएँ केवल शारीरिक और मौखिक होती हैं । भूख लगना , ठण्ड अथवा गर्मी महसूस करना तथा प्रत्येक कार्य में असुविधा महसूस करना ही उसकी प्रमुख समस्याएँ होती हैं । इस समय बच्चा परिवार में अपनी माँ अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता है । पारसंस का विचार है कि दूसरे सदस्यों के लिए तो ऐसा बच्चा केवल एक मनोरंजन की वस्तु के रूप में ही होता है । तब प्रश्न उठता है कि इस स्तर में बच्चा किन विशेषताओं को सीखता है ? वास्तव में इस समय बच्चे और माँ के कार्यों में कोई भिन्नता नहीं होती । इस कारण उसमें केवल एक ही विचार पैदा होता है कि वह और उसकी माँ एक - दूसरे से बिल्कुल ही पृथक् नहीं हैं । इस स्थिति को फ्रायड ने प्राथमिक एकरूपता कहा है । इसके पश्चात् इस स्तर में बच्चा अपनी भूख पर कुछ नियंत्रण रखना सीख जाता है । बच्चा माँ के शारीरिक सम्पर्क से आनन्द की अनुभूति लेना सीखता है । यही वे विशेषताएँ हैं जो उसमें क्रिया सम्बन्धी विचार उत्पन्न कर देती हैं । इस प्रकार सामान्यतः समाजीकरण का यह स्तर आयु के एक - डेढ़ वर्ष तक ही रहता है ।
( 2 ) शैशव अवस्था - इस स्तर का प्रारंभ विभिन्न प्रकार के परिवारों और समाजों में भिन्न - भिन्न आयु से होता है , लेकिन हम अपने समाज में इस स्तर का आरंभ डेढ़ वर्ष की आयु से मान सकते हैं । इस स्तर में सबसे पहले बच्चे से यह आशा की जाने लगती है कि वह शौच सम्बन्धी क्रियाओं को सीखकर उन्हें स्वयं करे । बच्चे को साबुन से हाथ साफ करने और कपड़े गन्दे न करने की शिक्षा दी जाने लगती है । इसके फलस्वरूप बच्चा दो भूमिकाएँ निभाता है । वह माँ से प्यार की इच्छा ही नहीं रखता बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है । सही काम के लिए माँ बच्चे को प्यार करती है और गलत काम करने पर अक्सर डांटती है या नाराज होने का बहाना करती है । इसी से बच्चे को सही व गलत कार्यों में अन्तर करना आ जाता है । यहीं से वह अपने परिवार और संस्कृति से सम्बन्धित मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना आरंभ कर देता है । बच्चे में अनुकरण की प्रवृत्ति ही उत्पन्न नहीं होती , बल्कि वह भिन्न - भिन्न परिस्थितियों में किये जाने वाले भिन्न - भिन्न प्रकार के व्यवहारों की ओर ध्यान केन्द्रित करना शुरू कर देता है । इस स्तर में बच्चा केवल माँ से ही सम्बद्ध नहीं रहता , बल्कि परिवार के दूसरे सदस्यों के व्यवहारों से भी प्रभावित होने लगता है । सदस्यों द्वारा क्रोध , स्नेह , विरोध और सहयोग का प्रदर्शन बच्चे में भी प्रेम अथवा तनाव की स्थिति पैदा करता है । पारसंस का कथन है कि परिवार में सदस्यों द्वारा दोहरा कार्यग्रहण इस स्तर में समाजीकरण का सबसे बड़ा माध्यम होता हैं
( 3 ) तादात्मीकरण अवस्था- जॉनसन के अनुसार इस स्तर का आरंभ सामान्यतः तीन - चार वर्ष की आयु से होता है और यह बारह - तेरह वर्ष की आयु तक रहता है । इस स्तर के आरंभ में बच्चा पूरे परिवार से सम्बद्ध होता है । इस समय यद्यपि वह यौनिक व्यवहार से पूर्णतया परिचित नहीं होता है लेकिन अव्यक्त रूप से उसके अन्दर यौन भावना विकसित होने लगती है । यहीं से बच्चे से यह आशा की जाने लगती है कि वह अपने लिंग के अनुरूप आचरण करना शुरू करे । बच्चा यदि इस प्रत्याशा के अनुरूप व्यवहार करता है तो स्नेह और पुरस्कार के रूप में उसे प्रोत्साहन दिया जाता है । आरंभ में बच्चा अपने लिंग और परिस्थिति से पूर्ण तादात्मीकरण स्थापित नहीं कर पाता है , क्योंकि उसमें ईर्ष्या अथवा उद्वेग अधिक होते हैं , लेकिन जैसे - जैसे वह उन पर नियंत्रण रखना सीखने लगता है समाजीकरण की प्रक्रिया में पूर्णता आती जाती है । बच्चा जब अपने लिंग के प्रति पूर्णतया जागरूक हो जाता है तभी विपरीत लिंग में उसकी रुचि बढ़ने लगती है । इस स्तर में समाजीकरण की प्रक्रिया दो रूपों में स्पष्ट होती हैं— ( क ) सामाजिक भूमिका से तादात्मीकरण , तथा ( ख ) सामाजिक समूहों से तादात्मीकरण ।
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उदाहरण के लिए पिता , भाई , सम्बन्धियों तथा परिवार के सभी सदस्यों की आशाओं के अनुरूप कार्य करना सामाजिक भूमिकाओं से तादात्मीकरण का उदाहरण है , जबकि अपने लिंग के सदस्यों , स्कूल के साथियों और मित्रों के अनुरूप कार्य करना सामाजिक समूह से तादात्मीकरण का उदाहरण है । इस स्तर में बच्चा प्रत्येक क्रिया को करते समय दूसरों के अनुरूप बनने का प्रयत्न करता है और इसी समय से वह यह समझने लगता है कि पिता का स्थान माँ से कुछ भिन्न है अथवा परिवार के की स्थिति बाहरी लोगों से भिन्न है । इसी से उसमें विभेदीकरण की प्रवृत्ति विकसित होने लगती है । यह सच है कि सम्पूर्ण स्तर में समाजीकरण की प्रक्रिया माँ द्वारा सबसे अधिक प्रभावित होती है , लेकिन यह तादात्मीकरण और अधिक सफल होता है जब परिवार में अग्रांकित परिस्थितियाँ विद्यमान हों
( 1 ) यदि पुत्र को पिता का और पुत्री को माँ का पूरा स्नेह मिलता हो ।
( 2 ) बच्चा जिस सदस्य को अपना आदर्श मानता है , उसका बच्चे से घनिष्ठ सम्बन्ध हो
( 3 ) पिता का माँ से सम्मानपूर्ण व्यवहार हो । ये दशाएँ बच्चे को कुण्ठा से बचा कर उसे भावात्मक सुरक्षा प्रदान करती है । यही भावात्मक सुरक्षा समाजीकरण की सफलता का प्राथमिक आधार है ।
( 4 ) किशोरावस्था - इस स्तर का प्रारम्भ यौवन के पहले चरण से होता है । अधिकतर विद्वानों ने समाजीकरण की प्रक्रिया में इस स्तर को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है , क्योंकि यह अवधि सामाजिक और मानसिक रूप से सबसे अधिक तनावपूर्ण होती है । एक ओर किशोर अधिक से अधिक स्वतंत्रता की मांग करने लगता है , जबकि दूसरी ओर परिवार और अन्य समूहों के द्वारा उसके सभी व्यवहारों पर कुछ न कुछ नियंत्रण रखा जाता है । इस समय बच्चे से यह आशा की जाने लगती है कि वह अपने बारे में महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं ले । इसके पश्चात् भी उसे प्रत्येक निर्णय लेने के समय अपने सांस्कृतिक मूल्यों का ध्यान रखने का प्रशिक्षण दिया जाता है जो अक्सर किशोर की भावनाओं के प्रतिकूल होता है । यही कारण है कि इस स्तर में बच्चे में कुछ न कुछ तनाव सदैव बने रहते हैं । यह स्तर विस्तृत जगत के सदस्यों के व्यवहारों से भी प्रभावित होता है । फलस्वरूप बच्चे को परिवार के सदस्यों से ही नहीं , बल्कि पड़ौस , विद्यालय , खेल के साथियों और नवागन्तुकों के विचारों से भी समायोजन करना पड़ता है । यहां पर समाजीकरण की प्रक्रिया उन बहुत से निषेधात्मक नियमों से प्रभावित होती है
जिनका एक संस्कृति में विशेष महत्त्व होता है । सामान्यतः मध्यमवर्गीय परिवारों में किशोर आर्थिक क्रियाएँ करना भी शुरू कर देता है । ऐसी स्थिति में आर्थिक जीवन की सफलता भी समाजीकरण का महत्त्वपूर्ण माध्यम बन जाती है । किशोर के अनुभव उसे विभिन्न परिस्थितियों का सामान्यीकरण करना सिखाते हैं । इसी स्तर के अंतिम चरण में उसमें परा अहम अर्थात् नैतिकता की भावना के दर्शन होने लगते हैं । इस प्रकार किशोरावस्था समाजीकरण का वह स्तर है जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों और व्यक्तिगत अनुभवों द्वारा आत्म नियंत्रण की धारणा को बल मिलता है । वास्तविकता यह है कि समाजीकरण की प्रक्रिया किशोरावस्था के बाद ही समाप्त नहीं हो जाती । किसी न किसी रूप में यह जीवनभर चलती रहती है । किशोरावस्था के बाद यह प्रक्रिया उतनी कठिन नहीं रह जाती है । इसके तीन कारण मुख्य हैं- प्रथम तो यह कि वयस्क व्यक्ति प्रत्येक कार्य को उसी उद्देश्य से प्रभावित होकर करता है । दूसरा कारण यह है कि वह जिन नयी भूमिकाओं को करना चाहता है वे प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से किशोरावस्था में पूरी की गयी भूमिकाओं के ही कुछ समान होती हैं तथा अंतिम कारण यह है कि भाषा की परिपक्वता के कारण वह समाज की नयी प्रत्याशाओं को जल्दी से समझ लेता है । यही कारण है कि समाजीकरण की प्रक्रिया किशोरावस्था के बाद स्वचालित मान ली जाती है ।
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