सिद्धान्त के प्रकार ( Types of Theory ) श्री परसी एस . कोहन के अनुसार मोटे तौर पर सिद्धान्त चार प्रकार के होते हैं
1. विश्लेषणात्मक सिद्धान्त ( Analytical Theories ) –जैसे तर्कशास्त्र तथा गणितशास्त्र के सिद्धान्त । इस प्रकार सिद्धान्त वास्तविक दुनिया के सम्बन्ध में शायद ही कुछ कहते हैं , अपितु कुछ ऐसे स्वयंसिद्ध कथनों से बनते हैं जो कि परिभाषा द्वारा सच होते हैं एवं जिनसे दूसरे कथनों को निकाला जाता है ।
2. आदर्शात्मक सिद्धान्त ( Normative theories ) - जो कि ऐसे आदर्श अवस्थाओं के एक समूह का विस्तार करता है जिनकी हम आकांक्षा करते हैं । इस प्रकार के सिद्धान्त , जैसे कि नीतिशास्त्र के एवं सौंदर्यबोधी सिद्धान्त , अक्सर गैर - आदर्शात्मक प्रकृति के सिद्धान्तों के साथ जुड़ जाते हैं और कलात्मक सिद्धान्त एवं वैचारिकीयों ( Ideologies ) आदि के रूप में सामने आते हैं ।
3. वैज्ञानिक सिद्धान्त ( Scientific Theories ) – आदर्श के रूप में एक सर्वव्यापी , अनुभाविक कथन होता है जो कि घटना के दो या अधिक प्रकारों के बीच एक कारणात्मक सम्बन्ध को बतलाता है । इस रूप में हम वैज्ञानिक सिद्धान्त की कुछ आधारभूत विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं और उनमें प्रथम यह है कि वैज्ञानिक सिद्धान्त सार्वभौम या सर्वव्यापी होता है । क्योंकि कुछ ऐसी अवस्थाओं के बारे में
बतलाता है , जिनके अंतर्गत कुछ घटना या घटना के प्रकार सदैव घटित होते हैं । द्वितीयतः वैज्ञानिक सिद्धान्त निश्चय ही आनुभाविक या प्रयोगसिद्ध भी होता है । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वे केवल आनुभाविक निरीक्षण के ही परिणाम हैं । आनुभाविक निरीक्षण किसी विशिष्ट घटनाओं का होता है पर चूँकि सिद्धान्त सर्वव्यापी होते हैं , इस कारण वे किन्हीं विशिष्ट घटनाओं के बारे में कथन नहीं हो सकते । वैज्ञानिक सिद्धान्त इस अर्थ में आनुभाविक होते हैं कि उसे ऐसे कथनों का निगमन किया जा सकता है जो कि किन्हीं घटनाओं के बारे में हैं और जिनकी जांच पड़ताल निरीक्षण के द्वारा किया जा सकता है ।
- प्रत्यक्षवाद की परिभाषा
- अवधारणा किसे कहते है?
- सर्वेक्षण का अर्थ क्या है?
- आधुनिकता की परिभाषा और विशेषता
तृतीयतः एक वैज्ञानिक सिद्धान्त को कारणात्मक ( Casual ) भी होना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि वैज्ञानिक सिद्धान्त को यह बतलाना चाहिये कि घटना कतिपय प्रकारों के घटित होने के लिए कुछ अवस्थाएं पर्याप्त हैं अथवा कुछ अवस्थाएं आवश्यक हैं । इस विशेषता के सम्बन्ध में तीन विचार या मत प्रचलित हैं- अ ) कुछ विद्वानों का कथन है कि सभी वैज्ञानिक सिद्धान्तों का कारणात्मक स्वरूप नहीं होता है , ( ब ) कुछ विद्वानों का मत है कि किसी भी वैज्ञानिक सिद्धान्त का कारणात्मक स्वरूप होता है क्योंकि विज्ञान का आधारभूत कार्य इस बात की व्याख्या करना है कि घटनाएं क्यों एवं कैसे घटित हुई ।
4. तात्विक सिद्धान्त ( Metaphysical Theories ) - चौथा एवं अन्तिम प्रकार का सिद्धान्त है । तात्विक एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों में मुख्य भेद या अन्तर यह है कि तात्विक सिद्धान्त वस्तुतः परीक्षण योग्य नहीं होते , यद्यपि उनका तार्किक मूल्यांकन किया किया जा सकता हैं। कुछ तात्विक सिद्धान्तों का वैज्ञानिक के साथ कोई मतलब नहीं होता है , जबकि अन्य स्पष्टतः विज्ञान के ही अंग होते हैं । इस प्रकार के सिद्धान्तो मान्यताएं होती है जो कि सुझावात्मक भूमिका अदा करता है । इसलिए ऐसे सिद्धान्तों से विज्ञान को भी लाभ पहुंच सकता है । प्राकृतिक स्वरूप का सिद्धान्त इसी प्रकार का एक उपयोगी तात्विक सिद्धान्त है ।
समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के प्रकार
समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के प्रकार डान मार्टिनडेल - प्रो . मार्टिनडेल ने अपना पुस्तक ' The Nature and Types of Sociological Theory ( 1961 ) में ' वाद ' के आधार पर समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के निम्नलिखित प्रकारों का उल्लेख किया है
1. ' प्रत्यक्षात्मक सावयवीवाद ' ( Positivistic Organicism ) - इस प्रकार के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को रखा गया है जिनमें कि समाज या सामाजिक घटना की विवेचना या व्याख्या । व्याख्या किसी न किसी रूप में सावयवी आधार पर उससे हटकर किया गया है । इसके अन्तर्गत सर्व श्री काम्टे , हरबर्ट स्पेंसर , लेस्टर वार्ड , टार्निस दुर्थीम आदि द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है । साथ ही साथ इस श्रेणी के अन्तर्गत सर्व श्री परेटो , फ्रायड आदि के सिद्धान्तों को भी रखा गया है . जिन्होंने उपर्युक्त सिद्धान्तकारों के सिद्धान्त में रूपान्तरण किया है ।
2. संघर्ष सिद्धान्त ( Conflict Theory ) - इस प्रकार के सिद्धान्त के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है , जो कि मानव जीवन या समाज में संघर्ष की स्थिति से सम्बन्धित हैं । इस प्रकार के सिद्धान्त की आधारशिला के रूप में सर्व श्री बोर्डिन , हॉब्स , हम आदि के सिद्धान्तों का उल्लेख किया है , वे उल्लेखनीय हैं । समाजशास्त्रीय संघर्ष सिद्धान्तों में सर्व श्री बेजहाट , रेटेजेनहोफर , स्माल , ओपेनहाइमर आदि के सिद्धान्त उल्लेखनीय हैं
3. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के स्वरूपात्मक संप्रदाय ( The Formal School of Sociological Theory ) - इस श्रेणी के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है जिन्हें कि स्वरूपात्मक संप्रदाय ( Formal School ) के प्रवर्तकों द्वारा प्रकाशित किया गया है । इस संप्रदाय के अनुसार , समाजशास्त्र का स्वरूप ' Forms of Sociolitation ' है । इस स्वरूपात्मक दृष्टिकोण से सर्व श्री जॉर्ज सिम्मेल , वीर कांत , विचार्ड वान बीज , म्बेक्रुवेबर आदि ने अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है ।
4. सामाजिक व्यवहारवाद ( Social Behaviourism ) - इस श्रेणी के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को स्वीकार किया है जो कि सामाजिक व्यवहार या सामाजिक क्रिया से सम्बन्धित हैं । श्री टार्ड द्वारा प्रस्तुत अनुकरण का सिद्धान्त अथवा श्री लीबन ( Lebon ) द्वारा भीड़ में मानव व्यवहार से सम्बन्धित सिद्धान्त व्यवहार सिद्धान्त ही हैं । उसी प्रकार रुबे श्री गिडिग्स , रॉस आदि के सिद्धान्त भी इसी प्रकार के हैं । इसी श्रेणी के अन्तर्गत सर्व श्री चार्ल्स कूले , विलियम यामम हरबर्ट मीड आदि के सिद्धान्तों को भी सम्मिलित किया गया है , जिनमें कि सामाजिक व्यवहार को श्रीकात्मक अंत क्रियाओं के आधार पर विश्लेषित किया गया है । साथ ही इस श्रेणी के अन्तर्गत सर्व श्री मैक्सवेबर वेब्लन , पारसंस आदि द्वारा प्रस्तुत सामयिक क्रिया के सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है ।
5. समाजशास्त्रीय प्रकार्यात्मकवाद ( Sociological Functionalism ) - इस श्रेणी के अन्तर्गत उन सिद्धान्तों को सम्मिलित किया गया है , जिनका प्रतिपादन समाज के निर्माणक अंगों या इकाइयों के प्रकायों के संदर्भ में किया गया है । सर्व श्री स्पेंसर , दुर्शीम , पैरेटो , मेलिनोवस्की , रेडक्लिफ बाउन आदि द्वारा प्रस्तुत प्रकार्यात्मक सिद्धान्त इसी प्रकार के सिद्धान्त हैं । इस विषय में आधुनिक प्रवृत्ति सामाजिक संरचना और प्रकार्यों के अंत : सम्बन्ध व अन्त निर्भरता का विश्लेषण करना है । इस मोड में सर्व श्री मर्टन , पारसंस आदि का सिद्धान्त ( संरचनात्मक प्रकार्यवाद ) विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की विशेषता
रॉबर्ट के . मर्टन ( Robert K. Merton ) ने समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की विशेषताओं के महत्व को निम्न प्रकार से बताया है ( 1 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सर्वप्रथम अध्ययन प्रवृत्ति को प्रभावित करता है । इस प्रभाव से तात्पर्य है कि अध्ययन पद्धति से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान करना ।
( 2 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त किसी शोधकर्ता की उस समस्या के अनुकूल मनोवृत्ति बनाने में सहयोग प्रदान करता है जिसका कि वह अन्वेषण कर रहा होता है । इस प्रकार शोधकर्ता के दृष्टिकोण के परिवर्तन में सहायता मिलती है ।
( 3 ) किसी शास्त्र का निर्माण विभिन्न सजातीय अवधारणाओं के सम्मिलन से होता है और जो भी सैद्धान्तीकरण होता है , उनमें अवधारणाओं का प्रयोग यथास्थान किया जाता है । समाजशास्त्रीय सिद्धान्त के द्वारा किसी भी अवधारणा सम्बन्धी भ्रम का स्पष्टीकरण किया जाता है ।
( 4 ) समाजशास्त्रीय सिद्धान्त उन तथ्यों के विश्लेषण में भी अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है जिसका संग्रहण शोध कार्य के माध्यम से होता है ।
( 5 ) आनुभाविक सामान्यीकरण ( Empirical Generalization ) में भी समाजशास्त्रीय सिद्धान्त बहुत उपयोगी है ।
( 6 ) यदि सिद्धान्तों में आपस में सम्बन्ध तर्क आधारित होता है तो एक सिद्धान्त अपने सजातीय सिद्धान्त को और अधिक सूक्ष्म बना देता है ।
समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों की प्रकृति
पर्सी कोहन के अनुसार ' सिद्धान्त केवल तथ्यों का एकत्रीकरण नहीं है और इसका कोई लाभ भी नहीं है , यद्यपि तथ्यों के कथन मात्र से सिद्धान्तों की रचना नहीं होती है । निश्चित रूप में सिद्धान्तों का कोई महत्त्व नहीं होगा यदि वे तथ्यों से बाहर न जायेंगे तथ्य कथनों के अतिरिक्त कुछ नहीं , जिनके बारे में हम विश्वास करते हैं कि ये किसी घटी हुई विशेष घटना के अनुरूप हैं लेकिन सिद्धान्तों का अर्थ केवल किसी विशेष घटना से नहीं होता अपितु वे घटनाओं की समस्त कोटियों के बारे में होते हैं । इसीलिए कई बार सिद्धान्तों को या
- समाजशास्त्र में फेनोमेनोलॉजी
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कुछ सिद्धान्तों को सामान्य तथ्य ( General Facts ) के अलावा कुछ भी नहीं माना जाता । तथ्यों को विभिन्न वर्गों में रखा गया है , जैसे- साधारणत : तथ्य , सामान्य तथ्य आदि । तथ्यों के आधार पर जो भी विभिन्न प्रकार के कथन किये जाते हैं , वे सिद्धान्त की कोटि में नहीं आते हैं । इसी तरह कोई उपकल्पना ( lypothesis ) भी सिद्धान्त नहीं है । उपकल्पना तो परीक्षण करने के लिए एक आधार के रूप में तैयार की जाती है और जब कोई उपकल्पना किसी शोध कार्य की रूपरेखा के अन्तर्गत प्रमाणित हो जाती है , तब वह एक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार की जाती है । सिद्धान्त का सम्बन्ध वास्तविकता से होता है , क्योंकि जब तक वास्तविकता से सिद्धान्त का सम्बन्धन हो तब तक उसमें स्थायित्व नहीं आता है और अनेक गुणों
जैसे- वास्तविकता , सर्वव्यापकता , पुनरावृत्ति , योग्यता आदि का अभाव रहता अगर सिद्धान्त तथ्यों से बाहर होंगे तो क्या वे वास्तविकता ( Reality ) से सम्बन्धित हो पायेंगे ? ऐसा करने पर वास्तव में हमें वास्तविक मूल्य संग्रह का कोई अनुभव नहीं होगा , अथवा हम जो कुछ संग्रह कर सकेंगे वह सिद्धान्त के लिये नहीं होगा । अधिकांशतया आरम्भिक सिद्धान्तों को , जिन्हें हम गम्भीरता से प्रयोग तो करते हैं , पर उन्हें हम अपनी भाषा से दबा देते हैं । इसीलिए सभी भाषाओं में निश्चित रूप से कुछ सार्वभौमिक कोटियों का प्रयोग किया जाना चाहिये और एक सार्वभौमिक कोटि का प्रयोग एक सिद्धान्त के प्रयोग में प्रभावशाली
है । पर्सी कोहन उदाहरण देते हैं कि अगर मैं यह कहूं कि यह टाइपराइटर भारी है तो मैं मानता हूं कि कुछ सार्वभौमिक कोटिया- भारीपन ( Heavyness ) के साथ जुड़ी हुई हैं , जो कि हल्केपन ( Lightness ) के विपरीत है । बिना सार्वभौमिक कोटियों के संचार ( Communication ) नहीं हो सकता और विना संचार के न संस्कृति ( Culture ) हो सकती है न समाज ( Society ) न विज्ञान ( Science ) न तकनीक और - वास्तविक जगत का आंशिक अनुभव ।
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