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सामाजिक संरचना?( social structure )

सामाजिक संरचना किसे कहते हैं?

प्रत्येक भौतिक वस्तु की एक संरचना होती है जो कई इकाइयों या तत्वों से मिलकर बनी होती है । ये इकाइयाँ परस्पर व्यवस्थित रूप से सम्बन्धित होती हैं तथा इन इकाइयों में स्थिरता पायी जाती है । जिस प्रकार से किसी शरीर या भौतिक वस्तु की संरचना होती है उसी प्रकार से समाज की भी एक संरचना होती है जिसे हम सामाजिक संरचना कहते हैं । समाज की संरचना कई इकाइयों ; जैसे परिवार संस्थाओं , संघों , प्रतिमानित सम्बन्धों , मूल्यों एवं पदों आदि से मिलकर बनी होती है । ये सभी इकाइयाँ परस्पर व्यवस्थित रूप से सम्बन्धित

 होती हैं । सामाजिक संरचना को हम मानव संरचना के उदाहरण से स्पष्ट कर सकते हैं । शरीर की संरचना हाथ , पांव नाक , मुंह आदि कई अंगों ( इकाइयों ) से मिलकर बनी होती है । ये सभी अंग अपने - अपने स्थान पर स्थिर हैं और परस्पर एक - दूसरे से व्यवस्थित रूप से जुड़े हुए हैं । ठीक इसी प्रकार समाज का निर्माण भी अनेक इकाइयों ( समितियों , संस्थाओं आदि ) के योगदान पर होता है लेकिन इन विभिन्न इकाइयों का परस्पर व्यवस्थित होना आवश्यक है ।

सामाजिक संरचना का अर्थ एवं परिभाषा

नाडेल का दृष्टिकोण - नाडेल ने अपनी पुस्तक Theory of Social Structure ' में स्पष्ट किया है कि समाजशास्त्रीय साहित्य में सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग व्यवस्था , संगठन , संकुल , प्रतिमान , प्रारूप एवं समाज , आदि के पर्यायवाची के रूप में किया गया है । यह तुलनात्मक रूप से यद्यपि स्थिर होती है , लेकिन इसका निर्माण करने वाले अंग स्वयं परिवर्तनशील होते हैं । 

गिन्सबर्ग का दृष्टिकोण- “ सामाजिक संरचना का अध्ययन सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों अर्थात् समूहों , समितियों तथा संस्थाओं के प्रकार एवं इन सबके संकुलन , जिनसे समाज का निर्माण होता है , से सम्बन्धित है । ” गिन्सबर्ग की परिभाषा में सामाजिक संरचना एवं सामाजिक संगठन में कोई भेद नहीं किया गया है । उनका मत है कि सामाजिक संरचना का निर्माण समूहों , समितियों एवं संस्थाओं से मिलकर होता है । 

रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार , “ मनुष्य परस्पर सामाजिक सम्बन्धों द्वारा बंधे हुए हैं । वास्तविक रूप में पाये जाने वाले सम्बन्धों के द्वारा ही सामाजिक संरचना का निर्माण होता है । मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्ध स्वतन्त्र नहीं होते वरन् संस्थाओं एवं नियमों द्वारा परिभाषित , नियमित एवं नियन्त्रित होते हैं । ”

सामाजिक संरचना की विशेषताऐ

( 1 ) सामाजिक संरचना समाज के बाह्य स्वरूप का बोध कराती है - सामाजिक संरचना का निर्माण विभिन्न इकाइयों एवं समितियों की क्रमबद्ध व्यवस्था से होता है । सामाजिक संरचना में हम इकाइयों के कार्यों को सम्मिलित नहीं करते हैं । जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग ; जैसे नाक , कान , सिर , पेट , आदि एक व्यक्तिगत क्रम से परस्पर जुड़ते हैं तो शरीर रूपी ढाँचे का निर्माण होता है जिसके बाह्य स्वरूप को स्पष्टतः देखा जा सकता है । इसी प्रकार समाज का निर्माण करने वाली विभिन्न इकाइयाँ भी क्रमबद्ध रूप से जुड़ने पर एक बाह्य ढाँचे का निर्माण करती है जिसे सामाजिक संरचना कहते हैं । 

( 2 ) सामाजिक संरचना अखण्ड व्यवस्था नहीं है - प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण कई खण्डों से मिलकर होता है अतः संरचना अखण्ड नहीं है । जब ये इकाइयाँ परस्पर एक क्रम में जुड़ जाती हैं तो एक बनावट या प्रतिमान को प्रकट करती है । उदाहरण के लिए , एक कमरे का निर्माण ईंट , चूना , पत्थर , सीमेंट , दरवाजे , खिड़की आदि से मिलकर होता है । इन्हें एक विशिष्ट क्रम में जोड़ने पर कमरे की बनावट या प्रतिमान प्रकट होता है । 

( 3 ) सामाजिक सरंचना की इकाइयों में एक क्रमबद्धता पायी जाती है - सामाजिक संरचना की एक विशेषता इकाइयों में क्रमबद्धता है । मात्र इकाइयों के इकट्ठा होने से ही सामाजिक संरचना का निर्माण नहीं होता है जब तक कि उन्हें एक विशिष्ट क्रम में न जोड़ा जाये । 

( 4 ) सामाजिक संरचना अन्तःसम्बन्धित इकाइयों का एक व्यवस्थित स्वरूप है सामाजिक संरचना का निर्माण विभिन्न इकाइयों से होता है और विभिन्न इकाइयों में परस्पर सम्बन्ध पाया जाता है । 

( 5 ) सामाजिक संरचना अमूर्त होती है - मैकाइवर और पारसन्स दोनों सामाजिक संरचना को एक अमूर्त धारणा मानते हैं । सामाजिक संरचना की निर्माण करने वाली सभी इकाइयाँ अमूर्त हैं । इनका भौतिक वस्तु की भांति कोई ठोस आकार या रूप नहीं है अर्थात् ये इकाइयाँ अमूर्त एवं अस्पृश्य हैं । 

( 6 ) सामाजिक संरचना का निर्माण अनेक उप - संरचनाओं से होता है - प्रत्येक सामाजिक संरचना का निर्माण कई उप - संरचनाओं से मिलकर होता है । सामाजिक संरचना का निर्माण भी शरीर रूपी संरचना के निर्माण की भांति विभिन्न उप - संरचनाओं ; जैसे - परिवार , जाति - वर्ग , शिक्षण संस्था , धार्मिक - संस्था , आर्थिक - संस्था आदि के द्वारा होता है , जिनकी स्वयं की अपनी संरचना होती है । इस प्रकार अनेक उप - संरचनाएं मिलकर सामाजिक संरचना का निर्माण करती हैं । 

( 7 ) सामाजिक संरचना स्थानीय विशेषताओं से प्रभावित होती है - प्रत्येक समाज की एक अलग संरचना होती है क्योंकि प्रत्येक सामाजिक संरचना किसी न किसी सांस्कृतिक व्यवस्था से प्रभावित होती । सामाजिक संरचना स्थान विशेष की भौगोलिक , राजनैतिक , सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों से प्रभावित होती है । 

( 8 ) सामाजिक संरचना में प्रत्येक इकाई का एक पूर्व निश्चित स्थान व पद होता है सामाजिक संरचना का निर्माण विभिन्न इकाइयों , समूहों , संस्थाओं , प्रतिमानों आदि को व्यवस्थित वक्रमबद्ध रूप से जोड़ने पर होता है । अतःसामाजिक संरचना में प्रत्येक इकाई का पद एवं स्थान निर्धारित होता है । यदि ये एक - दूसरे का स्थान ग्रहण कर लेते हैं तो सामाजिक संरचना में विकृति आ जायेगी । 

( 9 ) सामाजिक संरचना में सामाजिक प्रक्रियायें भी महत्वपूर्ण होती है सामाजिक संरचना के निर्माण में सहयोगी एवं असहयोगी प्रक्रियाओं ; जैसे- सहयोग अनुकूलन , व्यवस्थापन , एकीकरण , आत्मीकरण , प्रतिस्पर्धा आदि की भूमिका महत्वपूर्ण है । ये सामाजिक प्रक्रियाएँ ही सामाजिक संरचना के स्वरूप को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । 

( 10 ) सामाजिक संरचना में विघटन के तत्व भी पाये जाते हैं - सामाजिक संरचना मानव की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है किन्तु कई बार यह समाज में विघटन भी पैदा करती है । मर्टन तथा दुर्थीम का मत है कि कई बार सामाजिक संरचना स्वयं समाज में नियमहीनता पैदा करती है । सामाजिक संरचना की यह भी विशेषता है कि इसमें संगठन एवं विघटन दोनों ही पैदा करने वाले तत्व पाये जाते हैं ।

सामाजिक संरचना के तत्त्व

( 1 ) विभिन्न प्रकार के उप-समूह - सामाजिक संरचना का निमाण का प्रकर के उप - समूहों द्वारा होता है जो परस्पर सम्बन्धात्मक मानदण्डों द्वारा अन्तःसम्बन्धित होते हैं । समाज में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ धारण करने वाले उप - समूहों में संगठित रहते हैं । ये भूमिकाधिकारी ही सामाजिक प्रणाली में भाग लेते हैं । 

( 2 ) विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ - इन विभिन्न प्रकार के उप - समूहों में विभिन्न प्रकार की भूमिकाएँ होती हैं जो सापेक्ष दृष्टि से स्थायी होती हैं । कई भूमिकाएँ तो उसे धारण करने वाले व्यक्ति की अवधि के बाद भी बनी रहती हैं । दूसरे शब्दों में , भूमिकाएँ , भूमिकाधारियों से अधिक स्थायी होती हैं । 

( 3 ) नियामक मानदण्ड - उप - समूहों तथा भूमिकाओं को परिभाषित , नियन्त्रित एवं निर्देशित करने के लिए नियामक मानदण्ड होते हैं । ये मानदण्ड ही भूमिकाओं के पारस्परिक सम्बन्धों एवं अन्य प्रणालियों से सम्बन्धों को भी निर्धारित करते हैं । इन्हीं के कारण सामाजिक अन्तःक्रिया में स्थायित्व , नियमितता एवं पुनरावृत्ति पायी जाती है । 

( 4 ) सांस्कृतिक मूल्य - सामाजिक संरचना में सम्बन्धात्मक एवं नियामक मानदण्डों के अतिरिक्त सांस्कृतिक मूल्य भी होते हैं जिनके आधार पर वस्तुओं की तुलना की जाती है , उन्हें एक - दूसरे की तुलना में स्वीकृत या अस्वीकृत , वांछनीय या अवांछनीय , प्रशंसनीय या निन्दनीय , उचित या अनुचित ठहराया जाता है । मूल्यों के आधार पर ही भावनाओं , विचारों , लक्ष्यों , साधनों , सम्बन्धों , समूहों , पदार्थों एवं गुणों का मूल्यांकन किया जाता है ।

सामाजिक संरचना के प्रकार 

टालकट पारसन्स ने सामाजिक संरचना के निम्नलिखित चार प्रमुख प्रारूपों का उल्लेख किया है ( 1 ) सार्वभौमिक - अर्जित प्रतिमान ( 2 ) सार्वभौमिक - प्रदत्त प्रतिमान ( 3 ) विशिष्ट अर्जित प्रतिमान ( 4 ) विशिष्ट प्रदत्त प्रतिमान 

सामाजिक संरचना का महत्व 

1.  जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक 

2. समाज विरोधी व्यवहारो को समाप्त करने में योगदान

3. सामाजिक नियन्त्रण की साधन

4. अधिकतर कर्ताओं की अधिकतम आवश्यकताओ की पूर्ति सम्भवि

5. मानवीय और अंत:क्रियाओ और अंत:संबंधों की व्यवस्था के आधार

6. एकता उत्पन्न करने के माध्यम

7. सांस्कृतिक व्यवस्था से संबंधित होना





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